📍नई दिल्ली | 3 Mar, 2025, 1:49 PM
Ukraine Nuclear Weapons: यूक्रेन कभी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा परमाणु शक्ति संपन्न देश था। लेकिन 1994 में एक ऐतिहासिक समझौते के तहत उसने अपने सारे परमाणु हथियार छोड़ दिए। बदले में अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने उसकी संप्रभुता और सुरक्षा की गारंटी दी। लेकिन क्या हुआ? रूस ने 2014 में क्राइमिया पर कब्जा कर लिया और 2022 में पूरे यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया। और अब, जब यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की की वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से अपमानजनक गरमागरम बहस हुई है, तो यह सवाल उठता है कि अगर यूक्रेन के पास आज परमाणु हथियार होते, तो क्या उसे यह अपमान सहना पड़ता? यह सवाल भी उठ रहा है कि यूक्रेन भी उत्तर कोरिया की तरह एक ‘परमाणु सुरक्षा कवच’ का लाभ उठाकर अपनी संप्रभुता की रक्षा कर सकता था, क्योंकि अमेरिका और पश्चिमी देशों की गारंटी खोखली साबित हो रही है।
Ukraine Nuclear Weapons: यूक्रेन के पास कितना बड़ा था परमाणु भंडार?
सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन को सोवियत सैन्य संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा मिला, जिसमें लगभग 5,000 परमाणु हथियार भी शामिल थे। इन हथियारों में इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलें (ICBM) और स्ट्रैटेजिक बॉम्बर फाइटर जेट शामिल थे। इनमें कई लंबी दूरी की मिसाइलें भी शामिल थीं, जो 10 हजार किमी तक थर्मोन्यूक्लियर वॉरहेड ले जाने में सक्षम थीं। यानी तकनीकी रूप से, यूक्रेन अमेरिका, रूस और चीन के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा परमाणु शक्ति संपन्न देश बन सकता था।
लेकिन इस ताकत का पूरा कंट्रोल पूरी तरह उसके हाथ में नहीं था। इन मिसाइलों को लॉन्च करने के लिए आवश्यक कोड और कमांड सिस्टम रूस के पास थे। यानी, यूक्रेन के पास परमाणु हथियार तो थे, लेकिन उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता नहीं थी।
इस स्थिति में अमेरिका और पश्चिमी देशों ने यूक्रेन पर परमाणु हथियार छोड़ने का दबाव बनाया। बदले में 1994 में “बुडापेस्ट मेमोरेंडम” पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते में रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन को सुरक्षा की गारंटी दी। लेकिन यह गारंटी कितनी खोखली साबित हुई, यह आज पूरी दुनिया देख रही है।
जब 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ, तो यूक्रेन के पास दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा परमाणु शस्त्रागार था। इस शस्त्रागार में शामिल थे:
- 5,000 से अधिक परमाणु हथियार
- 1,900 सामरिक परमाणु हथियार (जिनका इस्तेमाल युद्ध में किया जा सकता था)
- 176 अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलें (ICBM)
- 44 स्ट्रैटेजिक बॉम्बर फाइटर, जो अमेरिका और रूस तक मार करने की क्षमता रखते थे।
Ukraine Nuclear Weapons: क्या था बुडापेस्ट मेमोरेंडम?
बुडापेस्ट मेमोरेंडम (Budapest Memorandum) 1994 में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यूक्रेन के बीच हुआ एक सुरक्षा समझौता था, जिसके तहत यूक्रेन ने अपने सभी परमाणु हथियार छोड़ने का फैसला किया। बदले में, इन महाशक्तियों ने यूक्रेन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने की गारंटी दी। लेकिन 2014 में रूस द्वारा क्राइमिया पर कब्जा और 2022 में यूक्रेन पर हमले के बाद यह संधि पूरी तरह से निष्क्रिय हो गई।
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5 दिसंबर 1994 को हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में यह समझौता हुआ, जिसे बुडापेस्ट मेमोरेंडम ऑन सिक्योरिटी एश्योरेंस (Budapest Memorandum on Security Assurances) कहा जाता है। यह समझौता मुख्य रूप से तीन पूर्व सोवियत देशों—यूक्रेन, कजाकिस्तान और बेलारूस के साथ किया गया था।
इस समझौते के तहत यूक्रेन ने अपने सभी परमाणु हथियार रूस को सौंप दिए। वहीं, रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता बनाए रखने की गारंटी दी। तीनों देशों ने यह भी वादा किया कि वे यूक्रेन के खिलाफ कभी भी सैन्य बल का उपयोग नहीं करेंगे। वहीं, अगर यूक्रेन पर कोई हमला होता है, तो ये तीनों देश तुरंत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में इसे उठाएंगे और कार्रवाई करेंगे। साथ ही, यूक्रेन को यह आश्वासन दिया गया कि उसकी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान किया जाएगा।
Ukraine Nuclear Weapons: क्यों फेल हुआ बुडापेस्ट मेमोरेंडम?
इस समझौते के तहत रूस ने यूक्रेन की सीमाओं की रक्षा करने का वादा किया था। लेकिन 2014 में रूस ने क्राइमिया पर कब्जा कर लिया और 2022 में उसने पूरे यूक्रेन पर हमला कर दिया। 2014 में, जब रूस ने अचानक क्राइमिया पर कब्जा कर लिया, जिससे यह संधि पूरी तरह से बेकार साबित हो गई। यूक्रेन ने जब सुरक्षा की मांग की, तो अमेरिका और ब्रिटेन ने सैन्य सहायता देने से मना कर दिया। रूस ने खुद ही इस समझौते को “Null and Void” (अमान्य) घोषित कर दिया। वहीं ऐसा ही कुछ 2022 में भी हुआ, जब यूक्रेन ने पश्चिमी देशों से मदद की उम्मीद की थी, लेकिन नाटो (NATO) ने सीधे सैन्य हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। अमेरिका और यूरोप ने सिर्फ हथियार और आर्थिक मदद दी, लेकिन सीधे जंग में शामिल नहीं हुए।
क्या वाकई यूक्रेन को परमाणु हथियार रखने चाहिए थे?
कई अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों का मानना है कि अगर यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार रखे होते, तो रूस उस पर हमला करने की हिम्मत नहीं करता। 1993 में अमेरिकी प्रोफेसर जॉन मीरशाइमर ने भविष्यवाणी की थी कि अगर यूक्रेन ने परमाणु हथियार छोड़ दिए, तो रूस एक दिन उस पर कब्जा करने की कोशिश करेगा। उनकी यह भविष्यवाणी 2014 और 2022 में सच साबित हुई।
वहीं, अगर यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार रखे होते, तो रूस पर यह खतरा बना रहता कि अगर उसने हमला किया, तो उसे परमाणु प्रतिक्रिया झेलनी पड़ सकती है। यही वजह है कि रूस ने कभी नाटो के किसी देश पर हमला नहीं किया, क्योंकि नाटो परमाणु हथियारों से लैस है। जबकि उत्तर कोरिया भी अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करता है। अगर यूक्रेन के पास भी परमाणु हथियार होते, तो शायद वह भी इसी नीति का पालन करता।
वहीं, यूक्रेन ने परमाणु हथियार छोड़ने के बदले पश्चिमी देशों की सुरक्षा पर भरोसा किया था। लेकिन जब 2014 में रूस ने क्राइमिया पर कब्जा किया, तब अमेरिका और ब्रिटेन ने सिर्फ बयानबाजी की, कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। इससे यह स्पष्ट हो गया कि यूक्रेन ने एक बड़ी गलती कर दी थी। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ स्टीवन पीफर ने इसे एक “सामूहिक विफलता” कहा, क्योंकि पश्चिमी देश यूक्रेन की सुरक्षा की गारंटी देने में नाकाम रहे। वहीं, 2022 में जब रूस ने यूक्रेन पर पूर्ण पैमाने पर हमला किया, तब भी नाटो (NATO) ने सीधे सैन्य हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। इससे साफ पता चलता है कि अंतरराष्ट्रीय संधियां केवल कागजी होती हैं, जिन पर बड़े देश जब चाहें, पैर रख सकते हैं।
परमाणु हथियार और न्यूक्लियर डिटरेंस: मिलती है सुरक्षा की गारंटी?
भले ही आज ये समय में परमाणु हथियार को इस्तेमाल बेहद मुश्किल है। लेकिन ये हथियार चलाने से ज्यादा डराने के काम आते हैं। परमाणु हथियार (Nuclear Weapons) आधुनिक युद्ध और वैश्विक शक्ति संतुलन का सबसे बड़ा आधार बन चुके हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए, तब दुनिया ने पहली बार इसकी विनाशकारी ताकत देखी। इसके बाद से ही कई देशों ने इसे डिटरेंस (निवारक) हथियार के रूप में अपनाया, ताकि वे किसी भी दुश्मन देश के आक्रमण से बच सकें।
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न्यूक्लियर डिटरेंस (Nuclear Deterrence) का मतलब है कि अगर एक देश के पास परमाणु हथियार हैं, तो दूसरा देश उस पर हमला करने से पहले सौ बार सोचेगा। यह एक तरह की मनोवैज्ञानिक रणनीति है, जो यह संकेत देती है कि हमला करने वाले देश को भी भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। यह रणनीति अमेरिका और रूस जैसी महाशक्तियों ने अपनाई और इसे “Mutually Assured Destruction (MAD)” कहा जाने लगा।
उदाहरण के तौर पर कोल़्ड वॉर के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ दोनों देशों के पास इतने परमाणु हथियार थे कि अगर एक देश हमला करता, तो दूसरा भी जवाबी हमला कर सकता था। इससे कोई भी देश पहला कदम उठाने से डरता था। भारत-पाकिस्तान दोनों देशों के पास परमाणु हथियार होने के कारण दोनों में सीधा युद्ध नहीं हुआ। यहां तक कि कारगिल युद्ध में भी पाकिस्तान ने परमाणु धमकी दी थी, लेकिन डिटरेंस के चलते भारत पर बड़ा हमला नहीं हुआ। वहीं, उत्तर कोरिया की बात करें, तो अमेरिका और उसके सहयोगी उत्तर कोरिया पर हमला करने से बचते हैं, क्योंकि उसके पास परमाणु हथियार हैं।
Ukraine Nuclear Weapons: क्या न्यूक्लियर डिटरेंस हमेशा काम करता है?
न्यूक्लियर डिटरेंस की रणनीति हमेशा सफल नहीं होती। अगर एक देश को लगे कि वह जल्द ही हमला नहीं करेगा तो उसकी परमाणु क्षमता नष्ट कर दी जाएगी, तो वह पहले हमला कर सकता है। इसे “First Strike Doctrine” कहा जाता है। वहीं, अगर कोई देश परमाणु हमले के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है, तो उसके पास कोई सुरक्षा नहीं होती।
भारत ने 1974 में अपना पहला परमाणु परीक्षण (Smiling Buddha) किया और 1998 में पूरी तरह से परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन गया। लेकिन भारत की नीति “No First Use” (NFU) यानी पहले हमला नहीं करने की है। इसका मतलब यह है कि भारत परमाणु हथियार तभी इस्तेमाल करेगा जब उस पर पहले हमला होगा। जबकि लेकिन पाकिस्तान की नीति इससे अलग है। पाकिस्तान पहले परमाणु हमला करने की धमकी देता है। उसकी रणनीति “Tactical Nuclear Weapons” यानी छोटे परमाणु हथियारों पर निर्भर करती है।
ट्रंप-जेलेंस्की विवाद और यूरोप की परमाणु नीति पर क्या होगा असर
हाल ही में वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की के बीच तीखी बहस हुई। इस बहस ने यूरोप को सोचने पर मजबूर कर दिया कि अगर अमेरिका यूक्रेन से मुंह मोड़ लेता है, तो क्या यूरोप को अपनी रक्षा के लिए परमाणु विकल्प तलाशने की जरूरत है?
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इस मुद्दे पर एक नई बहस छेड़ दी है। उन्होंने कहा कि यूरोप को अपनी स्वतंत्र रक्षा नीति अपनानी चाहिए और अगर जरूरत पड़े तो यूरोपीय परमाणु शक्ति डेवलप करने पर भी विचार किया जाना चाहिए। फ्रांस और ब्रिटेन के पास पहले से ही परमाणु हथियार हैं, लेकिन जर्मनी जैसे देश भी अब इस बहस में शामिल हो रहे हैं।
मैक्रों ने साफ कहा है कि अगर अमेरिका ने रूस के साथ कोई समझौता किया और यूरोप को बातचीत से बाहर रखा, तो यह नाटो गठबंधन के लिए बड़ा झटका होगा। इससे यह संकेत मिलता है कि यूरोपीय देश अब अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर रहने के बजाय अपनी रक्षा रणनीति पर फिर से विचार कर सकते हैं।
हालांकि, इस पर भी विवाद है। फ्रांस की विपक्षी नेता मरीन ले पेन ने स्पष्ट कहा कि फ्रांस की परमाणु सुरक्षा “केवल फ्रांस के लिए है” और इसे किसी अन्य देश के साथ साझा नहीं किया जाना चाहिए। फ्रांस के रक्षा मंत्री सेबेस्टियन लेकोर्नू ने भी कहा कि फ्रांस की परमाणु नीति पूरी तरह से राष्ट्रपति के नियंत्रण में रहेगी।
Ukraine Nuclear Weapons: यूक्रेन में परमाणु हथियारों की फंडिंग शुरू
यूक्रेन के लोगों में इस मुद्दे पर कितनी नाराजगी है, यह हाल ही में सामने आई एक दिलचस्प घटना से साफ होता है। यूक्रेन के एक बैंक “मोनोबैंक” के सह-संस्थापक सेरही होरोखोवस्की ने मज़ाक में एक क्राउडफंडिंग पेज बनाया, जिसमें लिखा था कि वह “यूक्रेन के लिए परमाणु हथियार बनाने के लिए फंड इकट्ठा कर रहे हैं।”
उन्होंने सोचा था कि यह सिर्फ एक मज़ाक रहेगा, लेकिन सिर्फ कुछ घंटों में इस अभियान में लाखों डॉलर जमा हो गए। यह दिखाता है कि यूक्रेन के लोग अब खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और वे यह मानते हैं कि उनके पास परमाणु हथियार होने चाहिए।
बाद में उन्होंने इस पैसे को ड्रोन और मानवीय मदद के लिए इस्तेमाल करने का फैसला किया, लेकिन इस घटना ने एक गहरी सच्चाई उजागर कर दी कि यूक्रेन के लोग अब सिर्फ पश्चिमी देशों की गारंटी पर भरोसा नहीं कर सकते।
क्या यूक्रेन फिर से परमाणु शक्ति बनने की सोच सकता है?
यूक्रेन ने अब तक कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है कि वह फिर से परमाणु हथियार बनाना चाहता है। लेकिन जिस तरह से रूस उसकी संप्रभुता को बार-बार चुनौती दे रहा है, और जिस तरह से अमेरिका की नीतियां अनिश्चित होती जा रही हैं, उसे देखते हुए यह चर्चा शुरू हो चुकी है कि क्या यूक्रेन को अपने परमाणु कार्यक्रम पर दोबारा विचार करना चाहिए?
अब सवाल यह उठता है कि अगर यूक्रेन फिर से परमाणु हथियार बनाने की दिशा में बढ़ता है, तो क्या पश्चिमी देश उसका समर्थन करेंगे, या फिर उस पर प्रतिबंध लगाएंगे?
यह सवाल न केवल यूक्रेन के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है। अगर भविष्य में छोटे देश यह महसूस करते हैं कि सुरक्षा संधियां केवल कागजों पर होती हैं, और बड़े देश जब चाहें, उन्हें तोड़ सकते हैं, तो शायद कई अन्य देश भी अपने परमाणु कार्यक्रम शुरू करने के बारे में सोचने लगेंगे।
हालांकि यूक्रेन ने 1994 में अपने परमाणु हथियार छोड़कर एक ऐतिहासिक मिसाल पेश की थी। लेकिन रूस की आक्रामकता ने यह दिखा दिया कि सिर्फ अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर भरोसा करना खतरनाक हो सकता है। आज, जब यूक्रेन की संप्रभुता खतरे में है और पश्चिमी देशों की गारंटी खोखली साबित हो रही है, तब यह सवाल उठना लाज़मी है क्या यूक्रेन को अपने परमाणु हथियार छोड़ने का फैसला करना चाहिए था? और अगर आज उसके पास ये हथियार होते, तो क्या रूस हमला करने की हिम्मत करता?