📍नई दिल्ली | 5 months ago
SC Slams Centre and Army: सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और सेना को कड़ी फटकार लगाई है। मामला एक शहीद जवान की विधवा को लेकर था, जिनकी पेंशन पर सेना और सरकार ने कोर्ट में अपील दायर की थी। कोर्ट ने इसे “अनुचित और कठोर” करार देते हुए कहा कि ऐसे मामलों में अपील करना न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि देश के लिए अपनी जान देने वाले जवानों और उनके परिवारों के प्रति असंवेदनशीलता भी है।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला नाइक इंदरजीत सिंह का है, जो 2013 में जम्मू-कश्मीर में ऑपरेशन रक्षक के दौरान एक आतंकवाद विरोधी गश्ती में शामिल थे। कड़ी ठंड और दुर्गम परिस्थितियों में गश्त करते हुए उन्हें अचानक सांस लेने में तकलीफ हुई। समय पर चिकित्सा सहायता न मिलने के कारण उनकी मौत हो गई। उनके कमांडिंग ऑफिसर ने इसे “युद्ध हताहत” (Battle Casualty) के रूप में वर्गीकृत किया, लेकिन उनकी पत्नी को केवल स्पेशल फैमिली पेंशन दी गई, जिसमें कम फायदे मिलते हैं।
इंदरजीत सिंह की पत्नी ने इस फैसले को चुनौती देते हुए सशस्त्र बल न्यायाधिकरण (AFT) का रुख किया। 2019 में, न्यायाधिकरण ने सेना को आदेश दिया कि उनकी पत्नी को लिबरलाइज्ड फैमिली पेंशन के साथ-साथ बकाया राशि और मुआवजा दिया जाए। इसके बाद सेना और केंद्र सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी
जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने इस मामले में सरकार की अपील पर कड़ी टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा, “वह इस देश के सैनिक थे और आपके लिए काम कर रहे थे। आप इस तरह के मामले में अपील कैसे कर सकते हैं? यह बहुत कठोर है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में अपील करना विधवाओं और उनके परिवारों के लिए आर्थिक और मानसिक पीड़ा का कारण बनता है। न्यायालय ने आगे कहा कि यह मामला उन परिस्थितियों का था, जहां सैनिक ने कठिन मौसम और दुर्गम इलाकों में अपनी ड्यूटी निभाई। ऐसे में उनकी विधवा को लाभ से वंचित करना अन्यायपूर्ण है।
सरकार की दलील और कोर्ट का जवाब
सरकार की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल विक्रमजीत बनर्जी ने तर्क दिया कि “युद्ध हताहत” और “शारीरिक हताहत” (Physical Casualty) में अंतर है। उन्होंने कहा कि सभी मामलों में लिबरलाइज्ड पेंशन देना उन सैनिकों के योगदान को कमजोर कर सकता है, जो सीधे युद्ध या दुश्मन की कार्रवाई में मारे गए हैं।
हालांकि, कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि यह मामला अलग है क्योंकि सैनिक ऑपरेशनल ड्यूटी पर थे और कठिन परिस्थितियों में उन्होंने अपनी जान गंवाई। अदालत ने कहा, “आप यह नहीं कह सकते कि उनकी पत्नी इस पेंशन की हकदार नहीं है। यह बेहद अनुचित है।”
3,000 लंबित अपीलों पर सुप्रीम कोर्ट ने जताई चिंता
कोर्ट ने इस बात पर भी नाराजगी जताई कि रक्षा मंत्रालय द्वारा ऐसी 3,000 अपीलें विभिन्न उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। ये सभी मामले मृत्यु और विकलांगता लाभ से संबंधित हैं, जिन्हें विभिन्न न्यायाधिकरणों ने मंजूरी दी थी।
कोर्ट ने कहा कि ऐसी अपीलें केवल विधवाओं और उनके परिवारों पर बोझ बढ़ाती हैं। कोर्ट ने संकेत दिया कि वह ऐसे मामलों में नियम तय करेगा और सरकार व सेना पर अनावश्यक अपीलों के लिए वास्तविक लागत (Actual Costs) वसूलेगा।
न्यायाधिकरण का आदेश
AFT ने 2019 में दिए गए अपने आदेश में सिंह की मृत्यु को “युद्ध हताहत” मानते हुए उनकी पत्नी को लिबरलाइज्ड फैमिली पेंशन देने का निर्देश दिया था। इसमें जनवरी 2013 से बकाया राशि और एकमुश्त अनुग्रह राशि (Ex-Gratia) शामिल थी। इसके अलावा, आदेश में देरी होने पर ब्याज का प्रावधान भी रखा गया था।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल शहीद जवानों और उनके परिवारों के प्रति सम्मान दर्शाता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि ऐसे मामलों में न्याय हो। कोर्ट ने कहा कि सरकार और सेना को इन मामलों में संवेदनशीलता और निष्पक्षता दिखाने की जरूरत है। इस दिशा में विस्तृत दिशानिर्देश तैयार करने का भरोसा देते हुए, शीर्ष अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है। वहीं, यह मामला उन हजारों सैनिकों और उनके परिवारों के लिए उम्मीद की किरण है, जो अपने हक के लिए लंबे समय से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।