📍नई दिल्ली | 24 Feb, 2025, 7:19 PM
Taliban-India Relations: 8 जनवरी 2025 को संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के दुबई में जब विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने तालिबान सरकार के कार्यवाहक विदेश मंत्री मौलवी अमीर खान मुत्ताकी से मुलाकात हुई थी, तभी लगने लगा था कि अफगानिस्तान और भारत के बीच कुछ चल रहा है। हालांकि इस मुलाकात के दौरान दोनों पक्षों ने व्यापार, मानवीय सहायता और क्षेत्रीय स्थिरता जैसे अहम मुद्दों पर चर्चा की। लेकिन इसके पीछे की कहानी जो सामने आ रही है, वह यह है कि दोनों देश अपने कूटनीतिक संबंधों को फिर से बहाल करने की तैयारी में हैं।

Taliban-India Relations: भारत जल्द अफगानिस्तान भेज सकता है राजनयिक और अधिकारी
सूत्रों के मुताबिक अफगानिस्तान में भारत के राजनयिक संबंधों को फिर से बहाल करने की योजना पर तेजी से काम हो रहा है। सूत्रों के अनुसार, भारत जल्द ही “दर्जनों राजनयिक और अधिकारी” अफगानिस्तान भेज सकता है ताकि वहां भारतीय दूतावास और वाणिज्य दूतावास को फिर से पूरी तरह से शुरू किया जा सके। इस योजना के तहत, तालिबान ने इन अधिकारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की गारंटी दी है। इसके अलावा, नई दिल्ली में अफगान दूतावास को तालिबान के कंट्रोल में सौंपने की प्रक्रिया भी लगभग तय मानी जा रही है।
Taliban-India Relations: इन नामों पर चल रहा है विचार
विदेश मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि मिस्री और मुत्ताकी की बैठक के दौरान तालिबान ने नई दिल्ली में अपने दो संभावित राजनयिकों की एक लिस्ट भारत को सौंपी थी, जिसमें नजीब शहीन का नाम सबसे ऊपर है। नजीब शहीन, तालिबान के कतर स्थित प्रवक्ता सुहैल शहीन के बेटे हैं, जो तालिबान की कूटनीतिक पहल का एक प्रमुख चेहरा हैं। सुहैल शहीन, जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते और लिखते हैं, 1990 के दशक में काबुल टाइम्स के संपादक भी रह चुके हैं। वहीं, 30 वर्षीय राजनयिक नजीब शहीन के अलावा अफगान विदेश मंत्रालय में कार्यरत शौकत अहमदजई का नाम भी इस पद के लिए विचार किया जा रहा है।
सूत्रों के अनुसार, भारत सरकार इस प्रतिनिधि को औपचारिक रूप से राजनयिक मान्यता नहीं देगी लेकिन वह भारत में तालिबान सरकार के शीर्ष प्रतिनिधि के रूप में कार्य करेगा। इस नियुक्ति के बावजूद, तालिबान को अपने झंडे को दूतावास, आधिकारिक कार्यक्रमों या वाहनों पर लगाने की अनुमति नहीं होगी।
Taliban-India Relations: अंतिम चरण में है प्रक्रिया
विदेश मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि नई दिल्ली में अफगान दूतावास को तालिबान के कंट्रोल में सौंपे जाने की प्रक्रिया भी लगभग अंतिम चरण में है। तालिबान सरकार और भारतीय अधिकारियों के बीच इस मुद्दे को लेकर कई दौर की बातचीत हो चुकी है। 24 नवंबर 2023 को, नई दिल्ली स्थित अफगान दूतावास ने स्थायी रूप से अपना कामकाज बंद करने का एलान किया था। अपने बयान में दूतावास ने कहा था, “अफगान गणराज्य के राजनयिकों ने इस मिशन को पूरी तरह से भारतीय सरकार के हवाले कर दिया है। अब यह पूरी तरह से भारतीय सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस मिशन के भविष्य को कैसे तय करती है।”
इकरामुद्दीन कामिल को बनाया था कार्यवाहक काउंसल
हालांकि मिस्री औऱ मुत्ताकी की बैठक से पहले ही भारत ने मुंबई स्थित अफगानिस्तान के वाणिज्य दूतावास में एक नए महावाणिज्य दूत की नियुक्ति को मंजूरी दी थी। सूत्रों ने बताया कि पिछले साल नवंबर में, तालिबान ने मुंबई स्थित अफगान वाणिज्य दूतावास में भारत में रह रहे एक अफगान नागरिक, इकरामुद्दीन कामिल को कार्यवाहक काउंसल नियुक्त किया था। यह भारत में तालिबान सरकार की तरफ से की गई पहली आधिकारिक नियुक्ति थी। कामिल ने इस्लामाबाद की इस्लामिक यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई की थी, इसके बाद उन्होंने नई दिल्ली स्थित साउथ एशियन यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त की, जिसे दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के तहत स्थापित किया गया था।
Taliban-India Relations: अभी तक नहीं आया कोई आधिकारिक बयान
सूत्रों का कहना है कि अफगान दूतावास को तालिबान के कंट्रोल में सौंपे जाने को लेकर भारत सरकार और तालिबान की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। अगर भारत तालिबान की तरफ से प्रस्तावित किसी नाम पर मुहर लगाता है, तो यह संकेत हो सकता है कि भारत धीरे-धीरे तालिबान सरकार के साथ अपने संबंध सामान्य करने की ओर बढ़ रहा है। वहीं, भारतीय अधिकारी तालिबान द्वारा नामित किसी भी राजनयिक को मंजूरी देने को लेकर सतर्कता बरत रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि भारत के लिए एक संभावित विकल्प यह हो सकता है कि वह पहले काबुल में अपना दूतावास को फिर से खोलने की पेशकश करे और उसके बाद ही तालिबान की इस मांग पर विचार करे।
बता दें कि भारत ने अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद काबुल में अपना दूतावास बंद कर दिया था और तब से उसने अपनी मौजूदगी को ‘टेक्निकल टीम’ तक सीमित रखा है। हालांकि, पिछले तीन सालों में भारत लगातार तालिबान के प्रतिनिधियों से मुलाकात करता रहा है। नवंबर 2024 में, पाकिस्तान-ईरान और अफगानिस्तान मामलों के संयुक्त सचिव जेपी सिंह ने काबुल का दौरा किया था और वहां तालिबान के रक्षा मंत्री मौलवी मोहम्मद याकूब मुजाहिद से मुलाकात की थी।
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तालिबान से सीधी नजदीकी नहीं दिखाना चाहता भारत
भारत अभी तक तालिबान को मान्यता देने से झिझक रहा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय अब भी तालिबान सरकार को लेकर आशंकित है। अमेरिका, यूरोप और कई अन्य देशों ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। इसकी प्रमुख वजहें तालिबान द्वारा महिलाओं के अधिकारों पर लगाए गए प्रतिबंध और लोकतांत्रिक सरकार न होने को लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंताएं हैं। जिसके चलते भारत अब तक आधिकारिक रूप से तालिबान सरकार को मान्यता देने से बचता रहा है। लेकिन अफगानिस्तान में दूतावास को फिर से खोलने की योजना भारत की बदलती विदेश नीति की ओर इशारा कर रही है। भारत के लिए यह समझौता एक कूटनीतिक संतुलन साधने जैसा है। वह तालिबान से सीधी नजदीकी नहीं दिखाना चाहता, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए उसे अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी।
तालिबान से दोबारा संपर्क क्यों बढ़ा रहा है भारत?
अब सवाल यह उठता है कि भारत तालिबान से दोबारा संपर्क क्यों बढ़ा रहा है। इसकी प्रमुख वजह क्षेत्रीय राजनीति है। रूस और मध्य एशियाई देशों की बदलती रणनीति भी भारत के इस फैसले को प्रभावित कर रही है। रूस अब अफगानिस्तान के साथ व्यापारिक और सैन्य सहयोग बढ़ा रहा है। ईरान भी तालिबान सरकार के साथ अपने संबंध सुधारने की दिशा में कदम बढ़ा चुका है। इसके अलावा पिछले साल, चीन ने तालिबान सरकार को आधिकारिक रूप से राजनयिक मान्यता दी थी, जिससे वह ऐसा करने वाला पहला देश बन गया था। वहीं, अफगानिस्तान में चीन और पाकिस्तान का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। चीन पहले ही अफगानिस्तान में खनिज संपत्तियों और इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट में निवेश कर रहा है। पाकिस्तान की तालिबान सरकार के साथ मजबूत कूटनीतिक और व्यापारिक संबंध बने हुए हैं। तालिबान सरकार अब वाखान कॉरिडोर के जरिए चीन से जुड़ने के लिए एक सड़क बनाने की योजना बना रही है। यह सड़क चीन को सीधे मध्य एशिया और मध्य पूर्व तक पहुंच प्रदान करेगी, जिससे बीजिंग इस खनिज संपन्न क्षेत्र में अपना आर्थिक प्रभाव बढ़ा सकेगा। इसके अलावा, चीनी कंपनियां तालिबान शासन के बाद भी अफगानिस्तान में खनन और बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश कर रही हैं।
तालिबान से संपर्क बनाए रखे भारत!
जिसके चलते भारत को डर है कि अगर वह अफगानिस्तान में निष्क्रिय रहा, तो उसका प्रभाव क्षेत्रीय राजनीति में कम हो सकता है। ऐसे में भारत के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह अफगानिस्तान में अपनी भूमिका को फिर से मजबूत करे। भारत हमेशा से अफगानिस्तान में स्थिरता और विकास को प्राथमिकता देता रहा है, अब इस समझौते के ज़रिए वहां अपने प्रभाव को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है। अफगानिस्तान मामलों के जानकार अज़ीज़ रफीई के अनुसार, “भारत के पास तालिबान से जुड़ने के अलावा कोई और व्यावहारिक विकल्प नहीं बचा है। भारत को कूटनीतिक रूप से तालिबान से संपर्क बनाए रखना चाहिए, अन्यथा यह क्षेत्रीय शक्ति संतुलन में पिछड़ सकता है।”
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भारत ने जम कर की है अफगानिस्तान की मदद
ऐसा नहीं है कि भारत ने तालिबान के साथ संबंध बना कर नहीं रखे हैं। बल्कि पिछले कुछ सालों से भारत की अफगानिस्तान नीति मानवीय सहायता और अफगान जनता के कल्याण पर फोकस रही है। भारत ने अफगानिस्तान में लंबे समय तक अपनी मजबूत उपस्थिति बनाए रखी थी, विशेष रूप से 2001 से 2021 के बीच। इस दौरान भारत ने अफगानिस्तान में अरबों डॉलर का निवेश किया, जिसमें सड़कों, स्कूलों, बांधों और संसद भवन का निर्माण शामिल था। लेकिन तालिबान के दोबारा सत्ता में आने के बाद यह सब बदल गया। 2021 के बाद से, भारत ने 50,000 मीट्रिक टन गेहूं, 300 टन दवाइयां और 27 टन भूकंप राहत सामग्री भेजी है। इसके अलावा, भारत ने अफगानिस्तान को कोविड-19 वैक्सीन और अन्य चिकित्सा मदद भी प्रदान की है।
भारत की अफगान नीति में दूरदृष्टि और स्पष्टता की कमी
रिटायर्ड सेना अधिकारी और रक्षा विश्लेषक ब्रिगेडियर वी महालिंगम कहते हैं, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत की अफगान नीति में दूरदृष्टि और स्पष्टता की कमी है। 2021 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया, तो भारत ने उसके साथ अपने राजनयिक संबंध समाप्त कर लिए थे। क्या आज उस फैसले निर्णय के पीछे का तर्क बदल गया है? तालिबान का वही कट्टरपंथी शासन, जो महिलाओं के अधिकारों को कुचल रहा है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेल रहा है और एक समावेशी सरकार बनाने से इनकार कर रहा है, क्या अब यह किसी भी तरह से भारत के लिए स्वीकार्य हो गया है?
वह आगे कहते हैं, भारत चीन को रोकने के लिए नई दिल्ली में तालिबान के एक राजदूत स्तर के प्रतिनिधि को मान्यता देने की योजना बना रहा है। लेकिन क्या मात्र एक राजनयिक की नियुक्ति से चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला किया जा सकता है? क्या यह रणनीतिक रूप से तार्किक कदम है? चीन अफगानिस्तान में पहले से ही बड़े स्तर पर निवेश कर रहा है, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत उसने अफगानिस्तान को अपने आर्थिक मॉडल में शामिल कर लिया है और पाकिस्तान के साथ मिलकर अपनी पकड़ को और मजबूत कर रहा है। क्या भारत को लगता है कि सिर्फ तालिबान के एक प्रतिनिधि को नई दिल्ली में स्वीकार करके चीन के प्रभाव को कम किया जा सकता है?
भारत का असली हित तालिबान सरकार में नहीं, बल्कि अफगान जनता में है
वह कहते हैं, सवाल यह उठता है कि अगर भारत तालिबान को आधिकारिक राजनयिक दर्जा नहीं दे रहा है, तो फिर इस आधे-अधूरे कूटनीतिक समझौते का क्या उद्देश्य है? ब्रिगेडियर वी महालिंगम के मुताबिक उन्हें यह कूटनीति के नाम पर एक गंभीर खेल जैसा प्रतीत हो रहा है। वह कहते हैं कि आज चीन दुनिया की एक प्रमुख आर्थिक और सैन्य शक्ति है। वह वैश्विक व्यापार और विनिर्माण का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है। अमेरिका समेत पूरी दुनिया इस तथ्य को स्वीकार कर चुकी है कि चीन एक मल्टीपोलर वर्ल्ड में एक अहम भूमिका निभाने जा रहा है। ऐसे में भारत को अपनी चीन नीति को व्यावहारिक बनाना होगा। हमें चीन को लेकर किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। भारत के राष्ट्रीय हित सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण हैं। लेकिन भारत को अपनी अफगान नीति को चीन के साथ जोड़ने की गलती नहीं करनी चाहिए। अफगानिस्तान में तालिबान सरकार अपनी कट्टरपंथी नीतियों के कारण लंबे समय तक नहीं टिकी रह सकती। तालिबान का शासन एक खास विचारधारा पर आधारित है, जो सिर्फ सुन्नी, हनफ़ी और देवबंदी समुदायों को तरजीह देता है, जबकि दूसरों को हाशिए पर रखता है। भारत के लिए असली हित तालिबान सरकार में नहीं, बल्कि अफगान जनता में है।
‘जिहाद’ छेड़ने वालों को जगह देना, संकट को न्योता देने जैसा
ब्रिगेडियर महालिंगम के मुताबिक नई दिल्ली में ऐसे लोगों को जगह देना, जो आतंकवादी संगठनों से जुड़े हो सकते हैं और जिनका दीर्घकालिक लक्ष्य दुनिया भर में शरिया कानून लागू करने के लिए ‘जिहाद’ छेड़ना है, अपने ही देश में संकट को न्योता देना है। इतिहास गवाह है कि तालिबान अपनी नीतियों और लक्ष्यों में कभी बदलाव नहीं करता। क्या उन्होंने कभी अपने कट्टरपंथी विचारों को बदला है? क्या उन्होंने कभी आतंकी संगठनों को समर्थन देना बंद किया है? क्या उन्होंने महिलाओं को स्वतंत्रता दी है? उत्तर हमेशा ‘नहीं’ ही रहेगा।
प्रॉक्सी युद्ध लड़ने की गलती नहीं करे भारत
ब्रिगेडियर महालिंगम आगे कहते हैं, भारत को कभी भी आतंकवादी समूहों का उपयोग करके प्रॉक्सी युद्ध लड़ने की गलती नहीं करनी चाहिए। अमेरिका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अफगानिस्तान में अमेरिका ने चरमपंथी गुटों को हथियार और समर्थन दिया, लेकिन बाद में वही गुट अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गए। अमेरिका की आंतरिक और बाहरी राजनीति, उसकी अर्थव्यवस्था, और उसकी सुरक्षा चुनौतियां आज इसी रणनीति के नतीजे हैं। भारत को इस रास्ते पर नहीं चलना चाहिए। भारत को अपनी अफगान नीति को स्पष्ट, व्यावहारिक और दीर्घकालिक दृष्टि से तय करना चाहिए। तालिबान को राजनीतिक वैधता देने की कोई भी गलती हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर परिणाम ला सकती है। भारत को तालिबान के साथ जुड़ने के बजाय, अफगान जनता के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए और अपने कूटनीतिक कदम बहुत सोच-समझकर उठाने चाहिए।