1971 India-Pakistan War: शिमला समझौते में इंदिरा गांधी ने चली थी तुरुप की चाल! कैसे गिड़गिड़ाए थे जुल्फिकार अली भुट्टो

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By हरेंद्र चौधरी

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📍नई दिल्ली | 4 months ago

1971 India-Pakistan War: भारत ने 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध जीत लिया था, लेकिन एक बड़ा मौका खो दिया था, जो भविष्य में कश्मीर मुद्दे को सुलझा सकता था। यह कहानी दिसंबर 1971 से शुरू होती है जब भारत और पाकिस्तान के बीच तीसरा युद्ध हुआ था। युद्ध के बाद, भारत के पास 93,000 पाकिस्तानी युद्धबंदी थे और पाकिस्तान के 5000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा था। इस पृष्ठभूमि में, भारत और पाकिस्तान ने 1972 में शिमला में मिलने का फैसला किया ताकि भविष्य के बारे में फैसला लिया जा सके। भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो से मुलाकात की और भारत की मांगों से अवगत कराया।

1971 India-Pakistan War: How Indira Gandhi Outmaneuvered Bhutto at Shimla

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1971 India-Pakistan War: भारत और पाकिस्तान के बीच ऐतिहासिक समझौता

अंरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और पत्रकार शशांक मट्टू बताते हैं कि इंदिरा गांधी जानती थीं कि शांति वार्ता में भारत मजबूत स्थिति में है। उन्होंने कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए दोनों देशों को अंतिम समझौते पर पहुंचने के लिए दबाव डाला। गांधी ने यह प्रस्ताव रखा कि भारत-पाकिस्तान के बीच जो संघर्ष विराम रेखा थी, उसे अंतर्राष्ट्रीय सीमा बना दिया जाए। इसका मतलब था कि दोनों पक्ष अपने कब्जे वाले कश्मीर के इलाकों को रखेंगे और विवाद को समाप्त कर देंगे।

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भारत की योजना थी कि कश्मीर का समाधान हो जाने के बाद, पाकिस्तान की जमीन वापस की जाए और युद्धबंदी रिहा किए जाएं। इस समझौते के जरिए भारत यह चाहता था कि दोनों देशों के रिश्ते अच्छे हों और दुश्मनी समाप्त हो।

1971 India-Pakistan War: कश्मीर पर समझौते से इंकार

लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो भारत की मांगों को मानने के लिए तैयार नहीं थे। शिमला सम्मेलन में भारत की तरफ से मौजूद भारतीय राजनयिक केएन बक्शी के मुताबिक भुट्टो ने अपने पुराने आक्रामक रुख के बावजूद भारतीय अधिकारियों से कहा कि वह भारत-पाकिस्तान के संबंधों को सुधारने के लिए तैयार हैं।

भुट्टो ने भारत से यह आग्रह किया कि वह उन्हें “राजनयिक कौशल” दिखाने का मौका दे और एक ऐसी डील पेंश करें, जिसे वह अपनी जनता के बीच स्वीकार कर सकें। भुट्टो ने यह भी कहा कि अगर वह भारत की कश्मीर पर मांगों को स्वीकार कर लेते हैं, तो पाकिस्तान में उनका समर्थन समाप्त हो जाएगा और पाकिस्तान में लोकतंत्र खत्म हो जाएगा।

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शशांक मट्टू के मुताबिक, यह हालात शिमला सम्मेलन को विफल करने की तरफ बढ़ रहे थी, लेकिन फिर अचानक चीजें बदल गईं। केएन बक्शी के मुताबिक, भुट्टो ने इंदिरा गांधी से एक आखिरी बार मुलाकात की और भारत से कश्मीर पर समझौता करने का अनुरोध किया। गांधी ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया और शिमला समझौता 2 जुलाई 1972 को हस्ताक्षरित हुआ।

इस समझौते में भारत और पाकिस्तान ने कश्मीर विवाद को द्विपक्षीय आधार पर हल करने का निर्णय लिया। इसका मतलब था कि इस मुद्दे पर किसी बाहरी हस्तक्षेप (जैसे अमेरिका, ब्रिटेन या संयुक्त राष्ट्र) की आवश्यकता नहीं होगी। दोनों देशों ने यह तय किया कि संघर्ष विराम रेखा (LoC) को एक नई अंतर्राष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार किया जाएगा।

इसके अलावा, दोनों देशों ने राजनयिक संबंध बहाल करने, युद्धबंदियों को वापस करने और पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र को भारत को लौटाने पर सहमति जताई। साथ ही, दोनों देशों ने एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार खत्म करने पर भी सहमति जताई।

शिमला समझौते की विफलता, भुट्टो ने मोड़ा मुंह

भारत ने शिमला समझौते के जरिए पाकिस्तान को शांति का पैगाम देने की उम्मीद जताई थी, लेकिन यह कुछ समय बाद टूट गई। भुट्टो ने पाकिस्तान के नेताओं के दबाव में आकर शिमला समझौते पर दी गई अपनी प्रतिबद्धताओं से मुंह मोड़ लिया। पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ अपने आक्रामक प्रचार को फिर से शुरू कर दिया और राजनयिक संबंधों को फिर से स्थापित करने में भी सालों लग गए।

यहां तक कि सबसे महत्वपूर्ण समझौते, यानी कश्मीर विवाद पर द्विपक्षीय समाधान और LoC को अंतर्राष्ट्रीय सीमा में बदलने के मुद्दे पर पाकिस्तान ने समझौता का पालन नहीं किया। भुट्टो ने इंदिरा गांधी को यह भरोसा दिलाया था कि वह धीरे-धीरे पाकिस्तान में आम राय को बदलेंगे और कश्मीर पर भारत के साथ एक समझौते पर पहुंचेंगे। हालांकि, भुट्टो ने धीरे-धीरे अपनी वायदों से मुंह मोड़ लिया और कश्मीर विवाद फिर से एक बड़ा मुद्दा बन गया।

इस समझौते के बाद कई लेखकों ने कहा कि गांधी ने भुट्टो के साथ एक अनौपचारिक रूप से सहमति जताई थी कि संघर्ष विराम रेखा (LoC) को eventually अंतर्राष्ट्रीय सीमा में बदल दिया जाएगा, लेकिन पाकिस्तान ने इस समझौते पर अपनी प्रतिबद्धता से मुंह मोड़ लिया।

क्या भारत ने सही फैसला लिया?

भारतीय दृष्टिकोण से, शिमला समझौते को लेकर बहुत से आलोचनाएं की गई हैं। कुछ लोगों का मानना है कि भारत के पास शिमला में मजबूत स्थिति थी। भारत के पास पाकिस्तान के युद्धबंदी और उसके कब्जे वाले क्षेत्रों का कब्जा था। यदि भारत ने कश्मीर मुद्दे पर एक अंतिम समझौते को मजबूती से लागू किया होता, तो पाकिस्तान को मजबूर होकर यह स्वीकार करना पड़ता और कश्मीर विवाद का समाधान हो जाता।

हालांकि, कुछ इतिहासकारों का कहना है कि भुट्टो कश्मीर पर कोई समझौता स्वीकार नहीं कर सकते थे। इतिहासकार श्रीनाथ राघवन का कहना है कि अगर भारत ने कश्मीर पर समझौता थोप दिया होता, तो पाकिस्तान की सेना भुट्टो को सत्ता से हटा देती। वहीं, एबेंसडर टीसीए राघवन शिमला में भारत के रुख का समर्थन करते हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान की ज़मीन और 93,000 युद्ध बंदियों को अनिश्चितकाल तक दबाव के रूप में रखना संभव नहीं था। वे चेतावनी देते हैं कि इस तरह की नीति से अमेरिकी हस्तक्षेप हो सकता था। 50 साल बाद भी शिमला समझौता एक विवादित मुद्दा है।

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