📍नई दिल्ली | 7 days ago
Bagram Airbase Explainer: अफगानिस्तान का बगराम एयरबेस एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में है। यह वही एयरबेस है जहां अमेरिका ने बीस साल तक अपना सैन्य प्रभुत्व बनाए रखा और जहां से उसने तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ बड़े सैन्य अभियान चलाए। लेकिन अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या यह एयरबेस फिर से अमेरिकी नियंत्रण में चला गया है? या जैसा कि कुछ रिपोर्टों में कहा जा रहा है, यह अब चीन की निगरानी में है? या फिर तालिबान अब भी इस पर अपनी पकड़ बनाए हुए है?
यह सवाल तब खड़ा हुआ जब कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि तालिबान ने बगराम एयरबेस अमेरिका को सौंप दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिकी वायु सेना के कई C-17 ग्लोबमास्टर विमान वहां उतरे, जिसमें सैन्य साजो-सामान और खुफिया अधिकारी मौजूद थे। इतना ही नहीं, इसमें CIA के डिप्टी चीफ माइकल एलिस के आने की भी खबर है। लेकिन तालिबान ने इन सभी खबरों को खारिज कर दिया है और इसे “प्रोपेगेंडा” बताया है। तालिबान ने कहा है कि बगराम पर उनका पूरा नियंत्रण है और इसे किसी भी विदेशी ताकत को सौंपने का कोई इरादा नहीं है।
Bagram Airbase Explainer: सोवियत संघ ने बनाया था बगराम एयरबेस
बगराम एयरबेस का इतिहास काफी पुराना और रोचक है। इसे 1950 के दशक में सोवियत संघ ने बनाया था और 1979 से 1989 तक सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान यह उनका प्रमुख सैन्य अड्डा रहा। बाद में, 2001 में अमेरिका के नेतृत्व वाली गठबंधन सेना ने अफगानिस्तान पर हमला किया, जिसके बाद बगराम अमेरिकी सेना का मुख्य केंद्र बन गया। यहां से अल-कायदा और तालिबान के खिलाफ 20 साल तक अभियान चलाया गया। अपने चरम पर, 2012 में यहां 100,000 से अधिक सैनिक और ठेकेदार तैनात थे। इस एयरबेस में दो बड़े रनवे, विशाल हैंगर, एक अस्पताल और एक हिरासत केंद्र भी था, जिसे “ग्वांतानामो बे ऑफ अफगानिस्तान” भी कहा जाता था।
यह एयरबेस अपनी रणनीतिक स्थिति के कारण बेहद महत्वपूर्ण है। यह अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से लगभग 40 मील उत्तर में परवान प्रांत में स्थित है और ईरान, चीन और मध्य एशियाई देशों की सीमाओं के करीब है। खास तौर पर, यह चीन के शिनजियांग क्षेत्र में मौजूद परमाणु सुविधाओं से केवल 400 मील दूर है, जिसके कारण इसकी भू-राजनीतिक अहमियत और भी बढ़ जाती है।
Bagram Airbase Explainer: क्या हुआ था बगराम के साथ?
15 अगस्त 2021 को अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान को अलविदा कह दिया। इस दौरान बगराम एयरबेस को अफगान सेना के हवाले कर दिया गया, लेकिन तालिबान ने जल्द ही देश पर कब्जा कर लिया और यह उनके नियंत्रण में आ गया। उस समय अमेरिकी की काफी आलोचना हुई थी। अमेरिकी सैनिकों ने बिना स्थानीय सहयोगियों को सूचित किए बेस छोड़ दिया, जिसके बाद तालिबान ने इसे अपने कब्जे में ले लिया। रिपोर्ट्स के मुताबिक, वहां 7 अरब डॉलर से अधिक के सैन्य उपकरण भी छूट गए थे।
अब, लगभग चार साल बाद, इस महीने अप्रैल 2025 में कुछ चौंकाने वाली खबरें सामने आईं। अफगानिस्तान की खामा प्रेस ने 7 अप्रैल, 2025 को रिपोर्ट दी कि अमेरिकी वायुसेना के कई C-17 ग्लोबमास्टर III विमान बगराम पर उतरे हैं। इन विमानों में सैन्य वाहन, उपकरण और वरिष्ठ खुफिया अधिकारी शामिल थे, जिनमें CIA के उप-निदेशक माइकल एलिस का नाम भी लिया गया। इस रिपोर्ट में दावा किया गया कि तालिबान ने यह एयरबेस अमेरिका को हाई-टेक ऑपरेशंस के लिए सौंप दिया है।
हालांकि, तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने इन दावों को “प्रोपेगैंडा” करार देते हुए खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान की संप्रभुता पर कोई समझौता नहीं होगा और किसी भी विदेशी सैन्य मौजूदगी की अनुमति नहीं दी जाएगी। तालिबान का कहना है कि बगराम उनके नियंत्रण में है और इसे अमेरिका को सौंपना “असंभव” है।
ट्रंप का दावा: बाइडेन की गलती से चीन का कब्जा?
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 8 अप्रैल, 2025 को रिपब्लिकन नेशनल कमेटी में दिए एक भाषण में बाइडन प्रशासन पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि 2021 में अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद बगराम असुरक्षित हो गया था, जिसका फायदा चीन ने उठाया। ट्रंप के मुताबिक, अगर वे सत्ता में होते, तो बगराम पर अमेरिका का नियंत्रण बना रहता, क्योंकि यह न केवल अफगानिस्तान के लिए, बल्कि चीन की परमाणु गतिविधियों की निगरानी के लिए भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने इसे “अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी आपदा” करार दिया और दावा किया कि अब यह एयरबेस प्रभावी रूप से चीन के नियंत्रण में है।
हालांकि, ट्रंप के इस दावे का कोई ठोस सबूत नहीं मिला है। न तो अमेरिकी सरकार और न ही तालिबान ने इसकी पुष्टि की है कि बगराम पर चीन का कोई नियंत्रण है। इसके उलट, चीन के विदेश मंत्रालय ने मार्च 2025 में एक बयान में कहा था कि उनकी बगराम में कोई सैन्य महत्वाकांक्षा नहीं है, हालांकि चीन ने अफगान लिथियम और अन्य खनिज संसाधनों में निवेश करना शुरू किया है और तालिबान सरकार से दोस्ताना रिश्ते बना लिए हैं। ऐसे में यह आशंका बढ़ती जा रही है कि कहीं चीन इस एयरबेस का इस्तेमाल किसी प्रकार की निगरानी या सामरिक गतिविधि के लिए तो नहीं कर रहा।
Bagram Airbase Explainer: C-17 विमानों की लैंडिग की क्या है सच्चाई?
हालांकि, मीडिया रिपोर्ट्स और फ्लाइट ट्रैकिंग डेटा कुछ और ही कहानी बयां करते हैं। क़तर से उड़ान भरने वाला एक अमेरिकी C-17 विमान हाल ही में पाकिस्तान के रास्ते बगराम एयरबेस पर उतरा। फ्लाइट ट्रैकिंग डेटा ने भी इसकी पुष्टि की है कि एक C-17 विमान कतर के अल-उदेद बेस से पाकिस्तान के रास्ते बगराम पहुंचा। हालांकि यह कोई सामान्य घटना नहीं है। यदि वाकई ऐसा हुआ है तो यह या तो तालिबान और अमेरिका के बीच किसी गुप्त समझौते का संकेत है, या फिर यह सिर्फ एक अस्थायी खुफिया मिशन हो सकता है।
C-17 ग्लोबमास्टर III विमान सिर्फ एक बड़ा कार्गो प्लेन नहीं है। बल्कि यह अमेरिकी वायुसेना की रीढ़ है। C-17 ग्लोबमास्टर III 170,900 पाउंड तक का भार ले जा सकता है और बिना ईंधन भरे 2,400 समुद्री मील तक उड़ान भर सकता है। यह विमान छोटे और खराब रनवे पर भी उतर सकता है। यह भारी सैन्य सामान, टैंक, ट्रक, ड्रोन और यहां तक कि हेलिकॉप्टर भी ले जाने में सक्षम है। यदि यह विमान वाकई बगराम पहुंचा है, तो सवाल उठता है — इसमें क्या लाया गया?
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें एडवांस निगरानी उपकरण, ड्रोन (जैसे MQ-9 रीपर), और शायद खुफिया मिशन के लिए मोबाइल ऑपरेशन यूनिट्स हो सकते हैं। रीपर ड्रोन को खासतौर पर आतंकवादियों पर निगरानी और हमले के लिए इस्तेमाल किया जाता है और इसकी मौजूदगी अफगानिस्तान में फिर से अमेरिकी गतिविधियों की ओर इशारा कर सकती है।
माइकल एलिस की मौजूदगी के क्या हैं मायने?
सीआईए के डिप्टी डाइरेक्टर माइकल एलिस की अफगानिस्तान में मौजूदगी यदि सच है, तो इसका मतलब है कि कोई बड़ी खुफिया रणनीति पर काम चल रहा है। एलिस की विशेषज्ञता राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी कानूनों में है। संभव है कि उनका मिशन तालिबान के साथ किसी खुफिया साझेदारी को फिर से स्थापित करना हो, खासकर ISIS-K जैसे साझा दुश्मनों के खिलाफ।
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह ISIS-K जैसे आतंकी समूहों पर नजर रखने के लिए हो सकता है, जो इन दिनों अफगानिस्तान में सक्रिय है और हाल ही में मॉस्को में एक हमले के लिए भी जिम्मेदार था। उनका कहना है कि तालिबान के पास सीमित संसाधन हैं, तो हो सकता है कि तालिबान ने उन पर कार्रवाई करने के लिए अमेरिका से मदद मांगी हो। उनका कहना है कि तालिबान के सामने कई चुनौतियां हैं – आर्थिक संकट, अंतरराष्ट्रीय मान्यता न मिलना और ISIS-K जैसे दुश्मन। विश्व बैंक के अनुसार, 2021 के बाद अफगानिस्तान की जीडीपी 30% तक सिकुड़ गई है। ऐसे में, तालिबान को अमेरिकी मदद की जरूरत पड़ सकती है। दूसरी ओर, अमेरिका के लिए बगराम ईरान और चीन की निगरानी के लिए एक महत्वपूर्ण ठिकाना हो सकता है।
पाकिस्तान से भी है तालिबान को चैलेंज
अंरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफेसर रिजवान अहमद कहते हैं कि तालिबान इस वक्त आर्थिक और राजनयिक मोर्चे पर घिरा हुआ है। अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है, विदेशी निवेश और सहायता लगभग ठप है, और दुनिया के ज़्यादातर देश आज भी तालिबान सरकार को मान्यता देने से हिचकिचा रहे हैं। ऐसे में अगर अमेरिका जैसा ताकतवर देश, जो कभी उनका सबसे बड़ा दुश्मन था, अब सहयोग की पहल करता है, तो तालिबान इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता।
वह कहते हैं कि पाकिस्तान, जो कभी तालिबान का सबसे मजबूत समर्थक था, उसने साल 2023 से अब तक पाकिस्तान ने 10 लाख से ज्यादा अफगान शरणार्थियों को वापस भेज दिया है। वहीं दूसरी ओर, रूस इस बात पर विचार कर रहा है कि क्या तालिबान को अपनी आतंकी सूची से हटा दिया जाए। यानी तालिबान अब ऐसी स्थिति में है जहां उसे अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत है— भले वह सीमित और अस्थायी ही क्यों न हो।
प्रोफेसर रिजवान अहमद के मुताबिक ऐसे में अगर अमेरिका के साथ किसी सीमित समझौते के तहत बगराम एयरबेस को फिर से किसी रणनीतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने दिया जाता है, तो तालिबान के लिए यह एक सुरक्षा और कूटनीतिक बढ़त का सौदा हो सकता है। इससे उन्हें न सिर्फ क्षेत्रीय ताकतों के दबाव से राहत मिलेगी, बल्कि वैश्विक मान्यता की दिशा में एक छोटा लेकिन मजबूत कदम भी माना जाएगा।
अमेरिका की “ओवर-द-होराइजन” रणनीति
वह कहते हैं कि अमेरिका अब “ओवर-द-होराइजन” रणनीति पर काम कर रहा है — यानी बिना जमीन पर सैनिक उतारे, किसी भी समय सटीक निशाना लगाने की क्षमता। जुलाई 2023 में कतर के एक अमेरिकी बेस से ड्रोन हमला कर सीरिया में अल-कायदा के एक टॉप कमांडर को मार गिराया गया था। जो अमेरिका की “ओवर-द-होराइजन” रणनीति का हिस्सा था। ऐसे में अगर अमेरिका को बगराम जैसे ठिकाने का दोबारा इस्तेमाल करने का मौका मिलता है, तो वह न केवल अपनी सैन्य पहुंच मजबूत करेगा, बल्कि क्षेत्र में अपनी मौजूदगी भी दोबारा स्थापित कर सकता है — वो भी बिना ज़्यादा सैनिक भेजे।
वहीं बगराम एयरबेस अफगानिस्तान के केंद्र में है, ईरान की सीमा से महज 600 मील की दूरी पर, और चीन के उइगर इलाके (शिंजियांग) से भी पास है, जहां उसके न्यूक्लियर और मिलिट्री प्रोग्राम चल रहे हैं। यानि, अमेरिका को यहां से नज़र रखने और जरूरत पड़ने पर एक्शन ले सकता है।
वह कहते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप ने अपने 2024 के चुनावी कैंपेन में बार-बार कहा कि बगराम को छोड़ना एक “ऐतिहासिक गलती” थी और यह चीन के मिसाइल बेस से बस एक घंटे की दूरी पर है। अब, ये दावा भले ही ज़रा बढ़ा-चढ़ाकर हो, लेकिन ट्रंप की बात में रणनीतिक सचाई जरूर है— बगराम की लोकेशन अमेरिका के लिए एक बड़ी ताकत बन सकती है।
‘डील विद द डेविल’ जैसा
प्रोफेसर रिजवान अहमद आगे कहते हैं कि और अगर वाकई ऐसा कुछ हो रहा है, तो ये एक ‘डील विद द डेविल’ जैसा ही है — तालिबान, जो कभी अमेरिका का दुश्मन था, अब शायद उसी के साथ कोई मौन समझौता कर रहा है। और अमेरिका, जिसने तालिबान के खिलाफ दो दशक तक लड़ाई लड़ी, अब उसी के भरोसे इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है।
बगराम एयरबेस, जो कभी अमेरिकी शक्ति का प्रतीक था, अब शायद फिर से वैश्विक शतरंज की बिसात पर एक ‘क्वीन’ की तरह लौट रहा है। लेकिन इस बार चालें कहीं ज़्यादा खामोश, तेज और रणनीतिक हैं। इस पूरे घटनाक्रम में एक बात तो तय है कि अगर बगराम में अमेरिका वाकई फिर से सक्रिय हो रहा है, तो इसका असर सिर्फ अफगानिस्तान तक सीमित नहीं रहेगा। ये पूरे मध्य एशिया, ईरान, चीन और रूस की सुरक्षा और कूटनीतिक रणनीतियों को प्रभावित कर सकता है।