1971 India-Pakistan War: जब एक बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोया था पाकिस्तानी जनरल, रावलपिंडी और याह्या खान पर फोड़ा था सरेंडर का ठीकरा

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By हरेंद्र चौधरी

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📍नई दिल्ली | 4 months ago

1971 India-Pakistan War: 16 दिसंबर 1971, भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम दिन, जब पाकिस्तान सेना ने ढाका में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया। यह दिन केवल एक सैन्य जीत का प्रतीक नहीं, बल्कि भारतीय सेना की अद्वितीय रणनीति, साहस और नेतृत्व की मिसाल है। इस दिन को याद करते हुए, फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की बातों को भुलाया नहीं जा सकता, जिनके कुशल नेतृत्व ने भारत को इस गौरवशाली विजय तक पहुंचाया। यह कहानी सिद्दीक़ सालिक (Siddiq Salik) की किताब “विटनेस टू सरेंडर” (Witness to Surrender) से ली गई है, जो उस समय की परिस्थितियों और तनाव को बयां करती है।

1971 India-Pakistan War: When a Pakistani General Broke Down Like a Child, Blamed Rawalpindi and Yahya Khan for the Surrender

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1971 India-Pakistan War: सरेंडर से पहले का माहौल

16 दिसंबर से कुछ दिन पहले, ढाका के गवर्नमेंट हाउस में गवर्नर मलिक, जनरल नियाजी और अन्य वरिष्ठ अधिकारी एक कमरे में बैठे हुए थे। माहौल भारी था और बातचीत बहुत कम हो रही थी। हर थोड़ी देर में चुप्पी पूरे कमरे पर छा जाती। गवर्नर मलिक ही ज्यादातर बोल रहे थे, वह भी बहुत सामान्य बातें। उन्होंने कहा, “परिस्थितियां हमेशा एक जैसी नहीं रहतीं। अच्छे दिन बुरे दिनों में बदल सकते हैं और बुरे दिन भी अच्छे हो सकते हैं। एक जनरल के करियर में भी उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी उसे सफलता गौरवान्वित करती है तो कभी हार उसके आत्मसम्मान को तोड़ देती है।”

जैसे ही गवर्नर मलिक ने यह बात खत्म की, जनरल नियाजी की बड़ी कद-काठी वाला शरीर कांप उठा। उन्होंने अपने हाथों से अपना चेहरा छुपा लिया और एक बच्चे की तरह रोने लगे। गवर्नर ने सांत्वना देते हुए उनका हाथ पकड़कर कहा, “जनरल साहब, एक कमांडर की जिंदगी में कठिन दिन आते हैं। लेकिन हिम्मत मत हारिए। ऊपर वाला महान है।”

‘साहिब रो रहे हैं’

इसी बीच, एक बंगाली वेटर कॉफी और स्नैक्स की ट्रे लेकर कमरे में आया। लेकिन उसे तुरंत डांटकर बाहर भगा दिया गया। जैसे ही वह बाहर निकला, उसने बाकी बंगालियों से कहा, “साहिब अंदर रो रहे हैं।” यह बात पाकिस्तानी गवर्नर के मिलिट्री सेक्रेटरी ने सुन ली और उसने वेटर को चुप रहने को कहा।

यह घटना एक तरह से उस युद्ध की सच्चाई का सबसे स्पष्ट और दर्दनाक विवरण थी। गवर्नर मलिक ने फिर जनरल नियाजी से कहा, “स्थिति खराब है। मुझे लगता है कि हमें राष्ट्रपति को संदेश भेजकर युद्धविराम की व्यवस्था करने को कहना चाहिए।”

जनरल नियाजी ने चुप्पी के बाद कमजोर स्वर में कहा, “मैं आदेश मानूंगा।” लेकिन इस प्रस्ताव पर किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई।

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नियाजी की टूटती उम्मीदें

इसके बाद जनरल नियाजी अपने मुख्यालय लौटे और खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया। तीन दिनों तक उन्होंने किसी से मुलाकात नहीं की। उस दौरान, लेखक सिद्दीक़ सालिक ने 8/9 दिसंबर की रात को उनसे मिलने की कोशिश की। जब वह कमरे में पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि जनरल नियाजी अपनी बांह पर सिर टिकाए हुए थे। उनका चेहरा किसी को दिखाई नहीं दे रहा था।

जनरल नियाजी ने उस बातचीत के दौरान एक ही बात कही, “सालिक, अपने भाग्य को धन्यवाद दो कि तुम आज जनरल नहीं हो।” उनकी आवाज में दर्द और असहायता झलक रही थी। यह वह समय था जब भारतीय सेना ने पाकिस्तान को चारों ओर से घेर लिया था। नियाजी का आत्मविश्वास पूरी तरह से टूट चुका था।

चैप्टर 23: ढाका पर कब्जा और आत्मसमर्पण का दिन

16 दिसंबर को ढाका में पाकिस्तानी सेना के खाकी वर्दी की जगह भारतीय सेना की हरी वर्दी ने ले ली। बंगाली लोग चुपचाप किनारे खड़े होकर यह नजारा देख रहे थे। शायद उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि इतने बड़े बदलाव के बाद उनका भविष्य कैसा होगा।

ढाका के आत्मसमर्पण के बाद, सिद्दीक़ सालिक ने फोर्ट विलियम, कोलकाता में जनरल नियाजी से बातचीत की। इस दौरान नियाजी ने अपनी नाराजगी और गुस्से को खुलकर व्यक्त किया। उन्होंने अपनी असफलताओं के लिए कोई पछतावा नहीं दिखाया। बल्कि उन्होंने पूरे घटनाक्रम का जिम्मेदार जनरल याह्या खान को ठहराया।

‘कुर्बानी का कोई मतलब नहीं था’

जब सिद्दीक़ सालिक ने उनसे पूछा कि वह ढाका को बचाने के लिए और प्रयास क्यों नहीं कर सके, तो नियाजी का जवाब था, “इससे क्या होता? और ज्यादा मौतें होतीं। ढाका की नालियां जाम हो जातीं। लाशें सड़कों पर पड़ी रहतीं। और अंत में नतीजा यही रहता। मैं 90,000 कैदियों को वेस्ट पाकिस्तान लेकर जाऊंगा, न कि 90,000 विधवाओं और लाखों अनाथों को वहां छोड़कर। यह कुर्बानी बेकार होती।”

जनरल नियाजी की यह स्वीकारोक्ति युद्ध के परिणाम और पाकिस्तान के टूटने की कहानी को साफ बयां करती है। यह ऐतिहासिक दिन भारत के साहस, रणनीति और मानवता के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की वह महान बात आज भी प्रेरणा देती है: “अगर कोई व्यक्ति कहता है कि उसे मौत से डर नहीं लगता, या तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वह एक गोरखा है।”

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आत्मसमर्पण का दिन

16 दिसंबर 1971 को, भारतीय सेना के नेतृत्व में लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने ढाका में पाकिस्तान सेना को आत्मसमर्पण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया। यह भारतीय सेना की अद्भुत योजना और बहादुरी का परिणाम था। इस विजय ने न केवल बांग्लादेश को आज़ादी दिलाई, बल्कि भारतीय सेना के इतिहास में यह दिन सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया।

सिद्दीक सालिक, जो कि युद्ध के दौरान पाकिस्तान सेना के अधिकारी थे, ने अपनी किताब “विटनेस टू सरेंडर” में इस ऐतिहासिक घटना का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि किस तरह पाकिस्तान सेना के अधिकारी आत्मसमर्पण से पहले टूट चुके थे। सालिक ने लिखा कि जब वे जनरल नियाज़ी से युद्ध के बारे में बात कर रहे थे, तो नियाज़ी ने अपनी असफलताओं के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराया, बल्कि रावलपिंडी और याह्या खान को दोषी ठहराया।

सैम मानेकशॉ का कुशल नेतृत्व

इस युद्ध में भारतीय सेना के प्रमुख फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का नेतृत्व भी बेहद महत्वपूर्ण रहा। उनके कुशल नेतृत्व और स्पष्ट रणनीति ने भारतीय सेना को एकजुट रखा और दुश्मन को घुटनों पर ला दिया। मानेकशॉ ने अपने सैनिकों का मनोबल ऊंचा रखा और हर कदम पर सही निर्णय लिया।

16 दिसंबर 1971 को, जब नियाज़ी ने आत्मसमर्पण किया, तो यह केवल एक कागज़ पर दस्तखत नहीं थे, बल्कि यह भारत की ताकत, भारतीय सेना की बहादुरी और सैम मानेकशॉ के नेतृत्व का प्रमाण था।

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