41 Years of Operation Meghdoot: अगर 2006 में UPA सरकार सियाचिन से पीछे हट जाती, तो आज लद्दाख के दरवाजे पर होते चीन-पाकिस्तान!

By हरेंद्र चौधरी

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📍नई दिल्ली | 13 Apr, 2025, 2:12 PM

41 Years of Operation Meghdoot: 41 साल पहले, 13 अप्रैल 1984 को भारत ने ऑपरेशन मेघदूत (Operation Meghdoot) के तहत दुनिया के सबसे ऊंचे और ठंडे युद्धक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर (Siachen Glacier) पर कब्जा किया था। 2006 में यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान सियाचिन से भारतीय सेना को पीछे हटाने की बातें सामने आई थीं (Indian Army Withdrawal Proposal 2006)। उस समय भारत और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता चल रही थी, और सियाचिन को डी-मिलिटराइज करने का प्रस्ताव (Demilitarisation Proposal Siachen) चर्चा में था। हालांकि, यह कदम नहीं उठाया गया। आज, जब सियाचिन के आसपास चीन की बढ़ती सैन्य गतिविधियां (China’s Military Activities Near Siachen) भारत के लिए एक नई चुनौती बन गई हैं, यह सवाल फिर से उठ रहा है कि अगर 2006 में भारत सियाचिन से पीछे हट जाता, तो आज की स्थिति क्या होती? क्या यह कदम सही होता, या भारत के लिए एक रणनीतिक भूल (Strategic Mistake India) साबित होता? विशेषज्ञों का मानना है कि यह क्षेत्र अब केवल भारत-पाकिस्तान के बीच की लड़ाई का मैदान नहीं रहा, बल्कि चीन की रणनीतिक चालों ने इसे एक त्रिकोणीय संघर्ष का केंद्र (India China Pakistan Military Triangle) बना दिया है।

41 years of Operation meghdoot: what if upa quit siachen in 2006

41 Years of Operation Meghdoot: सियाचिन का इतिहास

सियाचिन ग्लेशियर, जो हिमालय की कराकोरम पर्वत श्रृंखला में 76 किलोमीटर लंबाई में फैला हुआ है, अपनी कठिन जलवायु और ऊंचाई के कारण हमेशा से एक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र रहा है। यह ग्लेशियर 20,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, जहां तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे तक चला जाता है। इसके बावजूद, भारत और पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में अपनी सैन्य मौजूदगी बनाए रखी है। हालांकि पाकिस्तान सियाचिन ग्लेशियर पर नहीं है, बल्कि वह साल्टोरो रिज से नीचे है। साल्टोरो रिज सियाचिन ग्लेशियर के पश्चिम में एक प्राकृतिक अवरोधक की तरह है, जो भारत को पाकिस्तान और चीन से अलग करती है। यह रिज करीब 110 किलोमीटर तक फैली हुई है और इसकी सबसे ऊंची चोटी बिलाफोंड ला (17,880 फीट) है। यह रिज लद्दाख के डेपसांग मैदानों और शक्सगाम घाटी के बीच एक रणनीतिक ढाल की तरह काम करती है। शक्सगाम घाटी, जिसे 1963 में पाकिस्तान ने अवैध रूप से चीन को सौंप दिया था, अब चीन इस क्षेत्र में सड़कें और सैन्य ढांचा बना रहा है।

सियाचिन का भू-राजनीतिक संदर्भ

1949 के कराची समझौते और 1972 के शिमला समझौते के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) तय की गई थी। लेकिन सियाचिन के इलाके पर कोई फैसला नहीं हुआ, क्योंकि यह इलाका नो मेंस लैंड था। 1949 के कराची समझौते के बाद, भारत और पाकिस्तान के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को NJ 9842 तक परिभाषित किया गया था। लेकिन NJ 9842 से आगे, सियाचिन ग्लेशियर तक का इलाका अस्पष्ट था। इस समझौते में कहा गया था कि एलएसी NJ 9842 से “उत्तर की ओर ग्लेशियरों की ओर” जाएगी, लेकिन इसे स्पष्ट रूप से चिह्नित नहीं किया गया। 80 के दशक में पाकिस्तान ने यहां पर सैन्य गतिविधियां शुरू कीं। पाकिस्तान ने सियाचिन को अपने नक्शों में दिखाना शुरू कर दिया और विदेशी पर्वतारोहियों को इस क्षेत्र में जाने की अनुमति दी। 1980 तक, यह साफ हो गया कि पाकिस्तान सियाचिन पर कब्जा करने की योजना बना रहा है। उसने इस क्षेत्र में गश्त बढ़ा दी और जापानी पर्वतारोहियों को सियाचिन के रास्ते में मदद करने के लिए अपनी सेना को तैनात किया। यह भारत के लिए खतरे की घंटी थी।

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कैसे शुरू हुआ ऑपरेशन मेघदूत?

1983 तक, भारतीय खुफिया एजेंसियों ने सियाचिन में पाकिस्तान की गतिविधियों पर नजर रखना शुरू कर दिया था। रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) और भारतीय सेना की खुफिया इकाइयों ने पाया कि पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में सैन्य चौकियां बनाने की योजना बनाई है। यह भी पता चला कि पाकिस्तान ने यूके और जर्मनी से सियाचिन के लिए विशेष पर्वतारोहण और सैन्य उपकरण खरीदे थे। पाकिस्तान की योजना थी कि वह सियाचिन के साल्टोरो रिज पर कब्जा कर ले, जो इस क्षेत्र का सबसे ऊंचा और रणनीतिक हिस्सा है।

इसके जवाब में, भारतीय सेना ने ऑपरेशन मेघदूत की योजना बनाई। इस ऑपरेशन का नेतृत्व लेफ्टिनेंट जनरल प्रेम नाथ हून ने किया, जो उस समय 15 कोर के कमांडर थे। योजना यह थी कि भारत पाकिस्तान से पहले सियाचिन में अपनी स्थिति मजबूत कर ले और साल्टोरो रिज पर कब्जा कर ले। इस ऑपरेशन में चौथी बटालियन ऑफ कुमाऊं रेजिमेंट और लद्दाख स्काउट्स को मुख्य भूमिका दी गई। इसके अलावा, भारतीय वायु सेना (IAF) ने भी इस ऑपरेशन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बड़ा फैसला लेते हुए ऑपरेशन मेघदूत शुरू करके सियाचिन पर नियंत्रण हासिल कर लिया। ऑपरेशन मेघदूत की शुरुआत 13 अप्रैल 1983 को हुई, हालांकि इसकी तैयारी कई महीनों से चल रही थी। भारतीय सेना ने सबसे पहले सियाचिन के मुख्य दर्रों बिलाफोंड ला और सिया ला पर कब्जा करने की योजना बनाई। लेकिन इस ऑपरेशन को अंजाम देना आसान नहीं था। सियाचिन में तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस तक नीचे चला जाता है, और ऑक्सीजन की कमी के कारण सैनिकों को ऊंचाई से संबंधित बीमारियों का सामना करना पड़ता है।

भारतीय वायु सेना ने चीता और मिग-29 हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल करके सैनिकों और जरूरी सामान को सियाचिन तक पहुंचाया। सैनिकों को विशेष रूप से ट्रेनिंग दी गई ताकि वे इस कठिन इलाके में लड़ सकें। 13 अप्रैल 1983 को, भारतीय सेना ने बिलाफोंड ला पर कब्जा कर लिया और वहां तिरंगा फहराया। इसके बाद, सिया ला और अन्य महत्वपूर्ण चोटियों पर भी भारत ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली।

1984 में ऑपरेशन मेघदूत के बाद से भारत ने सियाचिन में अपनी सैन्य उपस्थिति बनाए रखी है। लेकिन इसकी कीमत भी भारी रही है। ठंड, हिमस्खलन और ऊंचाई से संबंधित बीमारियों के कारण हर साल कई सैनिक अपनी जान गंवा देते हैं। 2006 में, यूपीए सरकार ने सियाचिन को डी-मिलिटराइज करने की संभावना पर विचार किया था, ताकि दोनों देशों के सैनिकों की जान बचाई जा सके और भारत-पाकिस्तान के बीच विश्वास बहाली हो सके।

2006 में पीछे हटने का प्रस्ताव

2006 में, भारत और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता के दौरान सियाचिन से सैन्य वापसी का विचार सामने आया था। उस समय यूपीए सरकार में तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के बीच इस मुद्दे पर बातचीत हुई थी। प्रस्ताव था कि दोनों देश सियाचिन से अपनी सेनाओं को हटाएं और इसे एक डी-मिलिटराइज्ड जोन घोषित करें। लेकिन कई रक्षा विशेषज्ञों और सेना के अधिकारियों ने इसका कड़ा विरोध किया। उनकी दलील थी कि सियाचिन से पीछे हटने का मतलब होगा इस रणनीतिक क्षेत्र को पाकिस्तान और अप्रत्यक्ष रूप से चीन के लिए खोल देना।

भारत के पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल जेजे सिंह का कहना है कि 1984 में जब पाकिस्तान ने सियाचिन पर कब्जे की योजना बनाई, तो भारतीय सेना ने उससे पहले ही ऑपरेशन मेघदूत के तहत इस रणनीतिक ग्लेशियर पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। उन्होंने कहा, “हमने श्योक नदी के पास की ऊंची चोटियों को अपने कब्जे में लेकर पाकिस्तान की योजना को पूरी तरह नाकाम किया।” उनके मुताबिक, यह एक ऐसा रणनीतिक क्षेत्र है जो भारत को पाकिस्तान और चीन के बीच की कड़ी को तोड़ने का सामरिक लाभ देता है।

जनरल सिंह ने पुष्टि की कि 2006 में भारत और पाकिस्तान के बीच इस मुद्दे पर बातचीत चल रही थी, लेकिन भारतीय सेना ने सख्त विरोध जताया। “मैंने उस समय NSA एमके नारायणन को स्पष्ट कहा था कि जब तक पाकिस्तान नक्शे पर हमारी स्थिति को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं देता, हम पीछे नहीं हट सकते।”

उन्होंने यह भी कहा कि अगर सेना ने दृढ़ रुख न अपनाया होता, तो राजनीतिक दबाव के आगे घुटने टेकना पड़ता। उन्होंने कहा, “मैंने खुद इस इलाके में खून बहाया है, मैं जानता हूं कि सियाचिन हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है। यह कोई बर्फीला बंजर इलाका नहीं, बल्कि भारत की सामरिक शक्ति का प्रतीक है।”

वहीं, रक्षा विशेषज्ञ और रिटायर्ड मेजर जनरल विवेक अस्थाना कहते हैं, “2006 में सियाचिन से पीछे हटना एक बड़ी रणनीतिक भूल होती। सियाचिन भारत के लिए एक रक्षात्मक ढाल की तरह है। अगर हम उस समय पीछे हट जाते, तो आज चीन और पाकिस्तान की साझेदारी को देखते हुए हमारी स्थिति बहुत कमजोर हो जाती। सल्टोरो रिज पर हमारा नियंत्रण ही हमें इस क्षेत्र में बढ़त देता है।”

चीन की बढ़ती दखलअंदाजी

2025 में सियाचिन के आसपास की स्थिति पहले के मुकाबले ज्यादा से कहीं ज्यादा जटिल हो गई है। चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने सियाचिन के पास शक्सगाम घाटी और डेपसांग मैदानों में अपनी सैन्य गतिविधियां बढ़ा दी हैं। 2020 में गलवान घाटी में भारत और चीन के बीच हुए हिंसक संघर्ष के बाद से भारत अब चीन को लेकर सचेत है। चीन ने कराकोरम राजमार्ग के जरिए इस इलाके में अपनी पहुंच बढ़ाई है, जो चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का हिस्सा है। यह राजमार्ग पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) से होकर गुजरता है, जिसे भारत अपनी संप्रभुता का हिस्सा मानता है। भारत ने हमेशा से सीपीईसी का विरोध किया है। लेकिन अब, सियाचिन के पास चीन की सड़क और बुनियादी ढांचे के निर्माण ने भारत की चिंताएं और बढ़ा दी हैं।

भारत के सामने क्या है चुनौती?

सियाचिन में भारत की स्थिति मजबूत है। सियाचिन के पूर्वी हिस्से में लद्दाख के डेपसांग मैदानों में भारतीय सेना और चीन की पीएलए दोनों आमने सामने हैं। डेपसांग में डीबीओ (दौलत बेग ओल्डी) सड़क, जो भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है, इस पर चीन की नजर है। इसके अलावा, सियाचिन के पश्चिम में पीओके में पाकिस्तान की सेना और चीन की सैन्य सहायता ने भारत के लिए खतरे को और बढ़ा दिया है।

भारत ने सियाचिन में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए हैं। भारतीय सेना ने सल्टोरो रिज पर अपनी चौकियां स्थापित की हैं और वहां टैंक, तोपें और अन्य हथियार तैनात किए हैं। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि सियाचिन में सैन्य उपस्थिति बनाए रखना बेहद महंगा और जोखिम भरा है। ठंड, हिमस्खलन और ऊंचाई से संबंधित बीमारियों के कारण हर साल कई सैनिक अपनी जान गंवा देते हैं। ऐसे में, भारत को अपनी रणनीति में बदलाव करने की जरूरत है।

पाकिस्तान को हो जाता ये फायदा

वहीं, 2006 में अगर भारत सियाचिन से पीछे हट जाता, तो सबसे पहला और तात्कालिक लाभ पाकिस्तान को होता। सियाचिन पर भारत का नियंत्रण 1984 से ही पाकिस्तान के लिए एक चुनौती रहा है। साल्टोरो रिज पर भारत की पकड़ ने पाकिस्तान को इस क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने से रोक रखा है। भारत की वापसी के बाद, पाकिस्तान तुरंत साल्टोरो रिज पर कब्जा कर लेता, जिससे उसे सियाचिन ग्लेशियर का ज्यादातर हिस्सा अपने नियंत्रण में लेने का मौका मिल जाता, जो पाकिस्तान के लिए यह एक बड़ी रणनीतिक जीत होती।

रक्षा विशेषज्ञ लेफ्टिनेंट कर्नल (रिटायर्ड) अनुपम कुमार कहते हैं, “सियाचिन से भारत की वापसी पाकिस्तान के लिए एक सुनहरा मौका होती। वे साल्टोरो रिज पर कब्जा कर लेते और सियाचिन को अपने नियंत्रण में ले लेते। इससे उनकी स्थिति मजबूत होती और भारत के लिए एक नया सैन्य खतरा पैदा होता।”

पाकिस्तान इस क्षेत्र का इस्तेमाल भारत के खिलाफ घुसपैठ और आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए भी कर सकता था। सियाचिन के पास से गुजरने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर उसकी पकड़ मजबूत हो जाती, जिससे भारत के लिए इस क्षेत्र में निगरानी और रक्षा करना मुश्किल हो जाता।

क्या लद्दाख पर हो जाता चीन का कब्जा?

सियाचिन से भारत की वापसी का सबसे बड़ा लाभ चीन को होता। सियाचिन के पश्चिम में शक्सगाम घाटी में चीन को अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाने का मौका मिल जाता। साल्टोरो रिज पर पाकिस्तान का कब्जा अप्रत्यक्ष रूप से चीन के लिए फायदेमंद होता, क्योंकि पाकिस्तान और चीन की सैन्य साझेदारी पहले से ही मजबूत है।

2024 में सैटेलाइट इमेज से पता चला कि चीन ने हाइवे G219 से एक सड़क बनाई है, जो सियाचिन ग्लेशियर के उत्तरी हिस्से से महज 50 किलोमीटर दूर तक जाती है। अगर भारत सियाचिन से हट जाता, तो चीन इस सड़क को और आगे बढ़ाकर सियाचिन तक अपनी पहुंच बना लेता। इससे चीन को लद्दाख और दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) सड़क तक सीधा रास्ता मिल जाता, जो भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है।

सैन्य विशेषज्ञ प्रोफेसर मोहम्मद रिजवान कहते हैं, “सियाचिन से भारत की वापसी चीन के लिए एक रणनीतिक जीत होती। वे सियाचिन के जरिए लद्दाख में अपनी सैन्य पकड़ मजबूत कर लेते। इससे भारत की पूरी उत्तरी सीमा खतरे में पड़ जाती।” चीन इस क्षेत्र का इस्तेमाल भारत को घेरने के लिए भी कर सकता था। सियाचिन के पास कराकोरम राजमार्ग, जो चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का हिस्सा है, पहले से ही चीन की सैन्य और आर्थिक रणनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। सियाचिन पर नियंत्रण के बाद, चीन इस राजमार्ग को और प्रभावी ढंग से इस्तेमाल कर सकता था, जिससे भारत के लिए एक नया सैन्य खतरा पैदा होता।

वह कहते हैं, “सियाचिन से पीछे हटना भारत के लिए आत्मघाती कदम होता। चीन और पाकिस्तान की साझेदारी को देखते हुए, सियाचिन हमारी रक्षा की पहली पंक्ति है। अगर हम 2006 में पीछे हट जाते, तो आज चीन कराकोरम पास से लद्दाख तक अपनी सैन्य चौकियां बना चुका होता। यह भारत की संप्रभुता के लिए एक बड़ा झटका होता।” उनका कहना है कि सियाचिन में भारत की सैन्य उपस्थिति भले ही महंगी हो, लेकिन यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी है। 2006 में पीछे हटने का फैसला हमें आज एक ऐसी स्थिति में ला सकता था, जहां हमारी रक्षा की पहली पंक्ति ही टूट जाती।

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